अक्सर होता यूं है कि लिखने बैठो तो शब्द बस तैरते से चले आते हैं पर इधर कुछ दिनों से जाने क्या हुआ कि कलम तो जैसे रुक ही गई है । एक अरसा हुआ खुदसे बात किए हुए । कितनी बार कागज -पैन उठाया कि आज तो खुद की खैर खबर लेगें पर हर बार एक आदृश्य शक्ति ने जैसे मन बदल दिया।

कहीं और किसी काम में दिमाग को व्यस्त कर दिया, पर दिल था के अन्दर ही अन्दर एक रट लगाये रहता था कि पहले खुद से बात कर लो, कुछ सुनलो कहलो।आज भी शायद ऐसे ही होता अगर दिल ने अपनी ठानी न होती।

कुछ तो है ऐसा जो अन्दर चुभ रहा है पर दिख नहीं रहा।टीस तो उठ रही है पर वजह क्या है समझ नहीं आ रही।एक सन्नाटा सा मन में है।क्या कहें उसे सन्नाटा,निशब्द,शून्य या फिर कुछ और? बस इतना पता है कि कुछ तो मर गया है अन्दर, निशास्वत होगया है। कितना भी उठाओ झिंझोड़ो मन है कि पहले सा दौड़ता नहीं है।अब सुबहों में वो ताजगी नहीं महसूस होती, जिन शामों का कभी इन्तज़ार होता था वो कुछ यूं ढल जाती हैं जैसे कभी आई ही नहीं। रात होती है तो लगता है जैसे अब आराम आयेगा मगर सोने से भी अब तो डर लगने लगा है क्योंकि नींद तो आती नहीं बस खयालों से लड़ाई चलती रहती है। बहुत ही भयानक होता है वो वक्त जब दिमाग़ में हम अकेले अंधेरों से लड़ते हैं।रोज जैसे मर कर जीते हैं फिर मरने के लिए।
कभी-कभी सोचते हैं कि नींद की गोलियां लेकर सो जायें,कम से कम तब तो शांति मिलेगी थोड़ी देर। मगर वो भी नहीं हो पाता। रोज उठने से लेकर सोने तक फिर नींद में बस एक अनवरत जद्दोजहद चलती रहती है। अपने ही दिमाग़ में जैसे दफन हैं। एक अंधेरे कमरे में जहाँ न कोई खिड़की है न दरवाज़ा। वहां से निकलने की कोई सूरत नहीं । बस इधर-उधर सर मारते रहते हैं  अपने सवालों को लेकर । मगर जवाब हैं कि मिलते ही नहीं ।

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